Tuesday, May 12, 2020

Hello Dear Readers...!!!

इस blog को पढ़ने के लिए...और आपके comments के लिए आप सभी का शुक्रिया 😊

आज की यह post आप सभी को यह सूचित करने के लिए है...कि इस blog पर कुछ technical issues होने के कारण...अब यहाँ कोई नई post नहीं हो पाएगी....इस बात का मुझे खेद है...😒

मेरे नए blog की link है...💝😍

daureparvaaaz.blogspot.com


उम्मीद है...आप सभी का साथ ओेैर प्यार यूँ ही मिलता रहेगा...

So...plzz...keep reading....😊😊😊

Friday, April 10, 2020

ख़लिश




शब ही तो थी जो गुज़री
तेरे ख़्वाब लिये बग़ैर

                                 इक मुद्दत थी गुज़ारी
तेरा साथ लिये बग़ैर


इक नींद थी जिसकी ख़्वाबग़ाह
होती थी ये निगाहें

बैठी है मुझसे रूठकर
किसी से पर्दा किये बग़ैर



ये चाँद भी आज छिप गया
बादलों की ओट में ऐसे

किसी दुल्हन को देख लिया जैसे
कोई श्रृंगार किये बग़ैर


ऐ दोस्त..!! अर्ज़ है
इतनी ही आज तुझसे

कुछ न करना और ग़र करना
तो मुझे पशेमाँ किये बग़ैर


एक मिसरे ही से बात कही
कोई नज़्म कहे बग़ैर

सब कर दिया बयाँ
अल्फाज़ कहे बग़ैर


उस शहर का वो आशियाँ
राह तकता होगा न तुम्हारी

कर आए जिसको मुफ़्लिस
सुपुर्द किसी के किये बग़ैर

पर नोंच लिये न उसके
तुम्हारी दीद भारी पड़ गई

वो तितली नहीं रुकती वरना
गुल को गुलिस्तां किये बग़ैर





Tuesday, February 04, 2020

ख़ूबसूरत क़ैद



अपने ख़्यालों में अक्सर वो
मुझ पर मुक़दमा दर्ज कराता है 🙈

उसके चेहरे के हाव-भाव से
मुद्दा कुछ संगीन नज़र आता है 😵

अदालत भी उसकी..मुहाफ़िज़ भी वो..
दलीलें भी उसकी.. अमन-ओ-आमान भी वो 😓

क्या कहा..... ये इन्साफ़ नहीं है...!!!!
अजी..!!! इन्साफ़ की यहाँ दरकार नहीं है 💗


इल्ज़ामातों के सिलसिले का
अब  आग़ाज़  होता  है......

शुरु  में  झूठ-मूट  का
वो मुझ से नाराज़ होता है 😏

उधर खड़ी कटघरे में..मैं
मंद-मंद  मुस्काती  हूँ...😚

उसकी सारी कोशिशों को
जब सिफ़र मैं पाती हूँ

दलीलों के वक्त जब उसकी आँखें
मेरी आँखों से मिल जाती है

मुस्कान उसके होठों पर
बिखरने को आमादा हो जाती है 😊😍

सब उसके हक़ में होने पर भी
मैं बा-इज़्ज़त रिहा हो जाती हूँ

पर समझाऊँ कैसे उस बुद्धू को
कि मैं रिहा होना कहाँ चाहती हूँ 🙆


मुहाफ़िज़ : फैसला सुनाने वाला, जज
अमन-ओ-आमान: कानून ओेैर व्यवस्था

Sunday, January 12, 2020

सर्द मौसम

ऐसे सर्द मौसम में
जब तबीयत खुद को सर्द पाती है...
जाड़े की धूप से यकायक
कुछ दोस्ती-सी हो जाती है...
                                        सूरज अपना लश्कर लेकर
                                        कुछ देरी से निकलता है
                                        ज़मीं को उसका साथ
                                         बड़ी शिद्दत से खलता है




धूप-छाँव जब आपस में
आँख मुचौली  करती है
हवाएँ भी कुछ...
बेबाकी से बहती है

                             
                             

                             

                                अचार डालती  मामी-काकी
                                कहीं मसाले सुखाने लगती हैं
                                पर सामने छत की उस गोरी के
                                बाल सुखाने से जलती हैं....

झुर्रियाँ समेटे उन हाथों की अँगुलियाँ भी
फुर्ती से चलने लगती हैं
दादी-नानी जब ऊन के गोलों से
स्वेटर बुनने लगती हैं
   
                                  दिन चढ़ता है...धूप झाँकती
                                  कुछ यूँ अँगड़ाई लेती है
                                  अलसाई शामों की दस्तक पा
.                                 आख़िर वो बिदाई लेती है


जाते-जाते ये सूरज भी
कुछ इस तरह फर्ज़ निभाता है
सर्द शाम को हम सबकी
दहलीज़ तक छोड़ कर जाता है

                                ठंड जब गहराती है
                               और अंग ठिठुरने लगते हैं
                               कच्ची बस्ती की उन तंग गलियों में                                     अलाव जलने लगते हैं


स्याह काली रात जब
बड़ी लम्बी हो जाती है
दिन के इस बौनेपन पर
हर शै तरस खाती है
                                 अलसाई उन आँखों में
                                 नाज़ुक-सा सपना पलता है
                                 नींदों का दौर उन दिनों
                                 ज़रा और दूरी तक चलता है
लिहाफ़-चद्दर-रजाई-कम्बल का
ग़ुमान अँगड़ाई लेता है
खुद में खुद ही सिमटा-सा
हर शख़्स दिखाई देता है

Sunday, November 17, 2019

दो राय



हम जैसे थे..
तो वो भी बस अपने दिल की ही मानते थे

आज कहते हैं..
बेटा..!! हम उस वक्त भी तुमसे ज़्यादा जानते थे

ख़ुद से तो
तंगहाल में भी तंगदिली नहीं दिखाई जाती

पर इल्ज़ाम रखते हैं कि...
आजकल के बच्चे शेख़ी ज़्यादा मारते हैं

कुछ ख़ामियाँ ज़रूर हैं...
मानती हूँ मैं पर...

मुनासिब नहीं...
सारे इल्ज़ामात हम पर

जो ये बार-बार ज़माने की हवा का हवाला देते हो
उड़ानों को क्यों बंदिशों का तक़ाज़ा देते हो

सबब हमारा कभी
आपकी पेशानी पर सिलवटें लाना नहीं होता

पर कुछ ख़्वाहिशें हैं..कुछ सपने हैं..
जिनके बिना गुज़ारा नहीं होता

ख़िलाफ़त तो नहीं पर
कुछ ना-इत्तेफाक़ियाँ ज़रूर एक मत हैं

हम अपनी ज़िन्दगी पर कुछ इख़्तियार चाहें
तो हम कहाँ ग़लत हैं..!!!



तूफानों के थपेड़ों में
जब हमारा सफ़ीना फँस जाया करता

कोई राह नज़र न आती
और दिल डूब जाया करता

कोसते रह गए कि-
''ग़लती की है तो भुगतो !!''

उदासी और गहरा जाती कि
कम-से-कम आपने तो बड़प्पन दिखाया होता..




Tuesday, October 08, 2019

एक आशियाना ऐसा भी...

लफ़्ज़ों को तहज़ीब से सहेजकर
लहज़े से सिलवटों को निकाल रक्खा है
क़ाफ़िये के बिछौने पर मैंने
ग़ज़लों के तकिये को सजा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!




मौसिकी से दिल बहलाने की खातिर
सारा इन्तेज़ाम पहले ही करा रक्खा है
पसंद का तुम्हारी इस हद तक ख़याल रखा कि
दरवाज़े पर नाम तक तुम्हारा लिखा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

सँभलना ज़रा.... कि वहाँ एक ठोकर-सी है
मैंने वहाँ शिकायतों की पोटली को गाढ़ रक्खा है
कुरेदना नहीं हैं तुम्हें भी इसे कभी
तख़्ती पर ये साफ अल्फाज़ों में लिखा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

दहलीज़ पर नक्काशी गज़ब की है
झरोखों का भी खूब खयाल रक्खा है
किश्तों की फिज़ूलियत से बचने के लिए
एक मुश्त इंतेज़ाम करा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!


ये छत के झूमर में जो हीरे हैं न
एक-एक याद से सहेजे गए हैं
बिखर न जाएँ कहीं ये कभी टूटकर
मैंने इनका भी बीमा करा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!