Monday, March 05, 2018

यह शाम-2

हमेशा की तरह आज यह शाम फिर ढल रही है
हर पल हर दिन ज़िन्दगी हाथ से निकल रही है

मिट्टी के घरौंदे बनाने की अब वो उम्र नहीं रही  है
पर हक़ीक़त के इन महलों में अब साँसें घुट रही है
              यूँ तो  इक ख़ामोशी-सी इख़्तियार  की है हमने सदा
              पर अब यह ख़ामोशी हमें अंदर ही अंदर ढंस रही है

चंद क़ागज़ों के लिए लाखों ख़ुशियाँ रोज़ बलि चढ़ रही है
इंसानियत   ख़ुद  आज  'इंसान'  पर  शक़  कर  रही   है
               हमेशा की   तरह  आज  यह शाम फिर ढल  रही है
               हर  पल  हर  दिन ज़िन्दगी  हाथ  से  निकल रही है

दौड़ती-भागती  ज़िन्दगी सुकून के दो पलों को तरस  रही है
इतनी क़श्मकश के बीच आज वो अपना वजूद खोज रही है

कोशिश की कभी जानने की ????
                             शायद मुझसे ही कोई भूल हो रही है

ज़िन्दगी को जिया तो बचपन में था
अब  तो  बस यह यूँ ही कट रही है
                   हमेशा की  तरह आज यह शाम फिर ढल रही है
                   हर पल हर दिन  ज़िन्दगी हाथ से निकल रही  है





2 comments:

  1. Continues reader5 March 2018 at 02:24

    Hello mam I am an Indian living in UAE right now
    This blog helps me to connect with my soil and language as well. I must appreciate your efforts and writing skills. Can we have any show of yours here plzzzz..???

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  2. Nice to read that u finds these poems so connecting...and thanx alot for calling me to organise a show..I will surely think upon it..if it is possible in near future.

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Happy reading.....