क़ोरे काग़ज़ के क़ोरेपन में
दिखता वो अक़्स सादेपन-सा
टूटती हुई बोझिल साँसों में
घुला हुआ है ख़ालीपन - सा
मुड़ती गईं राहें भी यूँ तो
ख़ैर उनसे भी अब शिक़वा कैसा
तक़दीर थी यह तो अपनी-अपनी
लिखा था जिसमें फ़साना ऐसा
बदली-बदली है आज वो नज़रें
पढ़ा था जिनमें याराना वैसा
रूठी हुई है आज हर शै
आख़िर गुनाह किया हमने कैसा..??
To be continued....

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Happy reading.....