ऐसे सर्द मौसम में
जब तबीयत खुद को सर्द पाती है...
जाड़े की धूप से यकायक
कुछ दोस्ती-सी हो जाती है...
सूरज अपना लश्कर लेकर
कुछ देरी से निकलता है
ज़मीं को उसका साथ
बड़ी शिद्दत से खलता है
धूप-छाँव जब आपस में
आँख मुचौली करती है
हवाएँ भी कुछ...
बेबाकी से बहती है
अचार डालती मामी-काकी
कहीं मसाले सुखाने लगती हैं
पर सामने छत की उस गोरी के
बाल सुखाने से जलती हैं....
झुर्रियाँ समेटे उन हाथों की अँगुलियाँ भी
फुर्ती से चलने लगती हैं
दादी-नानी जब ऊन के गोलों से
स्वेटर बुनने लगती हैं
दिन चढ़ता है...धूप झाँकती
कुछ यूँ अँगड़ाई लेती है
अलसाई शामों की दस्तक पा
. आख़िर वो बिदाई लेती है
जाते-जाते ये सूरज भी
कुछ इस तरह फर्ज़ निभाता है
सर्द शाम को हम सबकी
दहलीज़ तक छोड़ कर जाता है
ठंड जब गहराती है
और अंग ठिठुरने लगते हैं
कच्ची बस्ती की उन तंग गलियों में अलाव जलने लगते हैं
स्याह काली रात जब
बड़ी लम्बी हो जाती है
दिन के इस बौनेपन पर
हर शै तरस खाती है
अलसाई उन आँखों में
नाज़ुक-सा सपना पलता है
नींदों का दौर उन दिनों
ज़रा और दूरी तक चलता है
लिहाफ़-चद्दर-रजाई-कम्बल का
ग़ुमान अँगड़ाई लेता है
खुद में खुद ही सिमटा-सा
हर शख़्स दिखाई देता है
जाड़े की धूप से यकायक
कुछ दोस्ती-सी हो जाती है...
सूरज अपना लश्कर लेकर
कुछ देरी से निकलता है
ज़मीं को उसका साथ
बड़ी शिद्दत से खलता है
धूप-छाँव जब आपस में
आँख मुचौली करती है
हवाएँ भी कुछ...
बेबाकी से बहती है
अचार डालती मामी-काकी
कहीं मसाले सुखाने लगती हैं
पर सामने छत की उस गोरी के
बाल सुखाने से जलती हैं....
झुर्रियाँ समेटे उन हाथों की अँगुलियाँ भी
फुर्ती से चलने लगती हैं
दादी-नानी जब ऊन के गोलों से
स्वेटर बुनने लगती हैं
दिन चढ़ता है...धूप झाँकती
कुछ यूँ अँगड़ाई लेती है
अलसाई शामों की दस्तक पा
. आख़िर वो बिदाई लेती है
जाते-जाते ये सूरज भी
कुछ इस तरह फर्ज़ निभाता है
सर्द शाम को हम सबकी
दहलीज़ तक छोड़ कर जाता है
ठंड जब गहराती है
और अंग ठिठुरने लगते हैं
कच्ची बस्ती की उन तंग गलियों में अलाव जलने लगते हैं
स्याह काली रात जब
बड़ी लम्बी हो जाती है
दिन के इस बौनेपन पर
हर शै तरस खाती है
अलसाई उन आँखों में
नाज़ुक-सा सपना पलता है
नींदों का दौर उन दिनों
ज़रा और दूरी तक चलता है
लिहाफ़-चद्दर-रजाई-कम्बल का
ग़ुमान अँगड़ाई लेता है
खुद में खुद ही सिमटा-सा
हर शख़्स दिखाई देता है
very nice poem thanks for sharing .
ReplyDelete